आखिर इस स्वतंत्र भारत में गुरुकुलों की स्थापना क्यों नहीं हुई? बाबाओं ने आश्रम बना दिये, मठ बना दिये, चंदे के बलपर बड़े बड़े प्रकल्प चलने लगे, लेकिन गुरुकुलों से दूरी क्यों बनी हुई है? इंग्लैंड में पहला स्कूल 1811 में खुला उस समय भारत में 7,32,000 गुरुकुल थे, आइए जानते हैं हमारे गुरुकुल कैसे बन्द हुए। हमारे सनातन संस्कृति परम्परा के गुरुकुल में क्या क्या पढाई होती थी ? 01 अग्नि विद्या (Metallurgy) 02 वायु विद्या (Flight) 03 जल विद्या (Navigation) 04 अंतरिक्ष विद्या (Space Science) 05 पृथ्वी विद्या (Environment) 06 सूर्य विद्या (Solar Study) 07 चन्द्र व लोक विद्या (Lunar Study) 08 मेघ विद्या (Weather Forecast) 09 पदार्थ विद्युत विद्या (Battery) 10 सौर ऊर्जा विद्या (Solar Energy) 11 दिन रात्रि विद्या 12 सृष्टि विद्या (Space Research) 13 खगोल विद्या (Astronomy) 14 भूगोल विद्या (Geography) 15 काल विद्या (Time) 16 भूगर्भ विद्या (Geology Mining) 17 रत्न व धातु विद्या (Gems & Metals) 18 आकर्...
🌼"भ्रामक उभरते प्रश्न आधारभूत गरजते उत्तर"🌸🏹🚩
"भ्रामक प्रश्न"
----------------------" मैं हैरान हूँ "
— महादेवी वर्मा,
(इतिहास में छिपाई गई एक कविता)
(1)'' मैं हैरान हूं यह सोचकर ,
किसी औरत ने क्यों नहीं उठाई उंगली ?
तुलसी दास पर ,जिसने कहा ,
"ढोल ,गंवार ,शूद्र, पशु, नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।"
(2)मैं हैरान हूं ,
किसी औरत ने
क्यों नहीं जलाई "मनुस्मृति"
जिसने पहनाई उन्हें
गुलामी की बेड़ियां ?
(3)मैं हैरान हूं ,
किसी औरत ने क्यों नहीं धिक्कारा ?
उस "राम" को
जिसने गर्भवती पत्नी सीता को ,
परीक्षा के बाद भी
निकाल दिया घर से बाहर
धक्के मार कर।
(4)किसी औरत ने लानत नहीं भेजी
उन सब को, जिन्होंने
" औरत को समझ कर वस्तु"
लगा दिया था दाव पर
होता रहा "नपुंसक" योद्धाओं के बीच
समूची औरत जाति का चीरहरण ?
महाभारत में ?
(5)मै हैरान हूं यह सोचकर ,
किसी औरत ने क्यों नहीं किया ?
संयोगिता अंबा -अंबालिका के
दिन दहाड़े, अपहरण का विरोध
आज तक !
(6)और मैं हैरान हूं ,
इतना कुछ होने के बाद भी
क्यों अपना "श्रद्धेय" मानकर
पूजती हैं मेरी मां - बहने
उन्हें देवता - भगवान मानकर?
(7)मैं हैरान हूं,
उनकी चुप्पी देखकर
इसे उनकी सहनशीलता कहूं या
अंध श्रद्धा , या फिर
मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा ?''
------------------
🌞भ्रमभञ्जक उत्तर💥
"मैं आश्चर्य में हूँ।"—जाम आर्य्यवीर
(इतिहास में छिपाया गया सत्य)
१-मैं आश्चर्य में हूं यह विचार कर कि किसी विदुषी ने सत्य जानने का प्रयास किया वा नहीं?
ढोल,गँवार,शूद्र,पशु,नारी ये सब ताड़न के अधिकारी ।
अब यहां सब के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं वर्ता जा सकता, ढोल निर्जीव वस्तु है जिसे बजाया जाता है । गँवार शब्द आक्रमणकारीयों की देन है वे ग्रामिणों को असंस्कृत कहकर धिक्कारते थे , एक सत्य यह भी है कि उस समय बहुतसे विस्तारों के लोग मोटी बुद्धि के थे जिनमें कुरीतियों की भरमार थी जैसे बालविवाह,नवजात कन्याहनन्, मांस-मदिरा, आखेटवृत्ति, दस्युवृत्ति इन कर्मों के करने वालों के लिए गँवार शब्द रुढ़ हो गया था अत: यहां कोई आपत्ति जैसी बात ही नहीं , क्योंकि लेखकगण तत्काल में समाजप्रचलित शब्दों का प्रयोग करते हैं ।
शूद्र शब्द मूर्खता, जडबुद्धि,अज्ञान हेतु प्रयुक्त हुआ है , मूर्ख को आप कितना भी क्यों न समझा लेवें वह सदैव अपनी वृत्ति नहीं त्याग सकता । इन सबके ताडन से तात्पर्य है कि इन सब से यथायोग्य वर्तें जैसे कि ढोल को बजाए विना बजता नहीं, पशु को हाँके वा वश में रखे विना वह अंकुश में रहता नहीं, नारी को भी मर्यादा की सीमा में रखनी पड़ती है, जब वह पितृगृह में हो तब बाप और भाई उसकी शिक्षा- रक्षा तथा पालन-पोषण के उत्तरदायी हैं, पतिगृह में पति और पुत्र उसके उत्तरदायी हैं इससे अधिक स्त्री को भला क्या चाहिए? आज के युग की भांति अधकचरे नंगे वस्त्र पहनाकर स्त्री को खुली छोड़ देना कौनसा स्त्री स्वातन्त्र्य हो गया? लोग कहतें हैं कपड़े नहीं बुरी नियत से देखना बंध करो । तो हे नग्नता प्रेमियों ! स्त्रियाँ खुले में ऐसे वस्त्र पहनकर किसे? और क्या? दिखाना चाहती हैं? पुन: उनकी ऐसी अश्लील हरकतों पर उनके साथ दुष्कर्म न हो जाए उसमें आश्चर्य ही क्या करना ।
२-मैं आश्चर्य में हूं कि
स्त्रियोंने मनुस्मृति पढ़ी क्यों नहीं? जिसने उन्हैं वेदविहित सबसे उंचे पद पर अधिष्ठित कर संबोधित किया, शास्त्रों में उन्हैं सम्मान्नीय देवी कहकर पुकारा । उन्हैं गृहस्वामीनि, दायभाग, यज्ञोपवीत, अग्निहोत्र, वेदादि शास्त्रों के पठन-पाठन का अधिकार आदि सब समानताएं दी हुईं हैं आप किसी भी मंदिर की देवी कि मूर्ति वा मंदिरों की शिल्पकलात्मक मूर्तियों पर स्त्रियों के अङ्ग पर यज्ञोपवीत देख सकते हैं और इसका होना इस बात कि और इङ्गीत करता है कि,
स्त्रियाँ यज्ञोपवीत पहनतीं थीं ।
स्त्रियाँ सन्ध्यावन्दन् करतीं थीं ।
स्त्रियाँ वेदमन्त्र पठन-पाठन करतीं थीं ।
स्त्रियाँ अग्निहोत्र करतीं थीं ।
पौलोमी, शची, विश्वा, घोषा, आत्रेयी, काक्षीवती, लोपामुद्रा, अपाला, वागाम्भृणि, गार्गी-मैत्रेयी आदि कई ब्रह्मवादिनी-ऋषिकाएं-विदुषियाँ हो चुकी हैं और अब भी कई विदुषियाँ हैं और होती रहेंगी ।
३- रामायण के कई पाठों में उत्तरकाण्ड न मिलने से वह पूर्णत: मान्य नहीं, तथापि अन्त: साक्ष्यों से भी रामायण षट् काण्डिय है ।
"चतु:विंशतिसहस्त्राणि श्लोकानामुक्तवानॄषि: । तत: सर्गशतान् पञ्च षट्काण्डानि तथोन्तरम् ।।"
बालकाण्ड-४/२
यहां पर स्पष्ट कहा है २४००० श्लोक
५०० सर्ग
अब यहां कोई कहे कि तथोन्तरम् शब्द से उत्तर काण्ड भी मान लिजिए । तब भी यह श्लोक के विरुद्ध होगा क्योंकि श्लोंको के पश्चात् "तत:" कहकर सर्ग गिनवायें हैं । और काण्ड संख्या कहकर तथोन्तरम् अर्थात् पाँचसो सर्गों के पश्चात् छ काण्ड ।
यह तो हुई बालकाण्ड में कही बात ।
उत्तरकाण्ड में भी जहां जहां सात काण्ड कहे हैं वहां वहां सीधे सीधे सात न कहकर ६+१ कहा है , क्या लेखक को ६ से आगे गिनती नहीं आती थी? जो उत्तर को पृथक् माना ।
दूसरी बात कि उत्तरकाण्ड में भी धोबी वाली बात नहीं है कहीं पर भी ।
,वहां मित्रमण्डली के दश लोगों की बात है ।
अब इस कथा में जो मूल रामायण का भाग ही नहीं सत्यता मान ही नहीं सकते, क्योंकि रामायण का नाम पौलस्त्यवध अर्थात् रावणवध है अत: रावण वध करके अयोध्यागमन् पर यह कथा समाप्त हो जाती है और वहां कथाश्रवण फलश्रुति भी लिखी हुई है जो इस बात कि पुष्टि करती है कि यहां रामायण समाप्त होती है , दो दो फलश्रुतियाँ अनुचित हैं अत: उत्तरकाण्ड प्रक्षिप्त ही है ।
४- "चीरहरण" पूनासंस्करण में भी यह सारा विवरण प्रक्षेप होने के कारण मूलपाठ में नहीं दिया गया । तथा दु:शासन द्वारा द्रौपदी की साड़ी का खींचा जाना और श्रीकृष्ण द्वारा उसकी साड़ी बढ़ाना गप्प है । स्वयं श्रीकृष्ण वनपर्व में कहते हैं कि "नैतत् कृच्छ्रमनुप्राप्तो भवान् स्याद् वसुधाधिप । यद्यहं द्वारकायां स्यां राजन् सन्निहित: पुरा ।। आगच्छेयमहं द्यूतमनाहूतोऽपि कौरवे: । वारयेयमहं द्यूतं बहून् दोषान् प्रदर्शयन् ।।"
अर्थात् हे राजन् (युधिष्ठिर) ! यदि मैं द्वारका में वा उसके निकट होता तो आप इस भारी संकट में नहीं पड़ते । मैं कौरवों के बिना बुलाये भी उस द्यूतसभा में आ जाता और उस जुए के अनेक दोष दिखाकर उसे रोकता ।
अर्थात्
_"मुझे तो पता ही नहीं था कि द्युत खेला जा रहा है । यदि मैं द्वारका में होता तो बिना बुलाये भी हस्तिनापुर आकर द्युत को रुकवा देता ।"_
इस कथन् से स्पष्ट है कि द्यूत हुआ था, तथा द्रोपदी के केश पकड़कर सभा में लाने का अपमान भी किन्तु चीरहरण,चीरबढ़ाना आदि गप्प हैं । द्यूत में मदिरापान के कारण भी अनेक दुर्घटनाएं हो जाती थीं । द्यूत को उस समय भी आर्य सज्जनवृन्द में अधमकृत्य माना जाता था । वेद में भी कहा है *"अक्षैर्मादिव्य:"* अर्थात् हे मनुष्य अक्षक्रिडा (द्यूत) मत खेल । महर्षि दयानन्द कहते हैं उसका भाव यह है कि महाभारत से १००० एक सहस्त्र वर्ष पूर्व से विकृतियाँ आने लगीं थीं ।
इस प्रसङ्ग में सब ने वेदाज्ञा का उल्लङ्घन किया था इस लिए यह अधर्म कृत्य ही माना जायेगा पर चीरहरण प्रक्षिप्त प्रसङ्ग है ।
५-मैं आश्चर्य में हूं कि किसी ने
अम्बा-अम्बालिका-अम्बिका के हरण का प्रसङ्ग पढ़ा भी है वा ऐसे ही मिथ्याक्षेप मढ़ दिया?
वस्तुत: भीष्म काशी के स्वयंवर में इस हेतु गये थे कि अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के विवाह हेतु काशिराज की पुत्री का सम्बन्ध निश्चित कर आए । पर वहां जब भीष्म पहूंचे तब काशिराज की कन्याओं ने विना कुछ जाने भीष्म को उद्विग्न होकर कहा कि यह तो
"बुड्ढा" है ।
तथा वहां
उपस्थित अन्य राजन्यों ने भी भीष्म का उपहास किया कि -
"वृद्ध: परमधर्मात्मा वलीपलितधारण:। किं कारणमिहायातो निर्लज्जो भरतर्षभ:।। मिथ्याप्रतिज्ञो लोकेषु किं वदिष्यति भारत । ब्रह्मचारीति भीष्मो हि वृथैव प्रथितो भुवि । इत्येवं प्रब्रुवन्तस्ते हसन्ति स्म नृपाधमा:।।"
अर्थात्
भरतवंशियों में श्रेष्ठ भीष्म तो बड़े धर्मात्मा सुने जाते थे । ये तो वृद्ध हो गया है ,शरीर
पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं ,सिर के बाल श्वेत हो गये हैं पुन: क्या कारण है कि यहां आया है? ये तो बड़ा निर्लज जान पड़ता है । अपनी प्रतिज्ञा को झूठी करके लोगों को क्या मूँह दिखाएँगे? भूमण्डल में व्यर्थ ही यह बात फैल गई कि भीष्म ब्रह्मचारी है । ऐसा कहकर वे अधम राजन्यजन हसने लगे ।
इसी कारण भीष्म ने काशिराज की तीनों कन्याओं का हरण किया और उन सभी राजन्यों को युद्ध में परास्त करके धूलचाटते कर दिए ।
भीष्मजी परमधार्मिक थे जब उन्हैं हस्तिनापुर आने पर काशिराज की सबसे बड़ी पुत्री जो सती-साध्वी अम्बा थी उसने भीष्म से कहा कि "मया सौभपति: पूर्वं मनसा हि वृतव पति:। एतद् विज्ञाय धर्मज्ञ धर्मतत्त्वं समाचर।।" अर्थात् हे धर्मात्मन्(भीष्मजी) ! मैंने पहले से ही मन ही मन सौभ नामक विमान के अधिपति महाराज शाल्व को पतिरुप में वरण कर लिया है । इस बात को सोंच-समझकर जो धर्म का सार प्रतीत हो वही कार्य किजिए ।
तब
"विनिश्चित्य स धर्मज्ञो ब्राह्मणैर्वेदपारगै: । अनुजज्ञे तदा ज्येष्ठामम्बां काशिपते: सुताम् ।।" अर्थात् धर्मज्ञ भीष्म ने वेद पारङ्गत ब्राह्मणों से विचार करके काशिराज की ज्येष्ठ पुत्री अम्बा को उसी समय राजा शाल्व के पास जाने की अनुमति प्रदान की ।
अब बात करते हैं संयोगिता की । कि उसके हरण पर कोई विरोध क्यों नहीं करता ?
तो स्वयंभू स्त्रिचिन्तकों !
भारत में यह प्रसिद्ध है कि संयोगिता व पृथ्विराज में प्रेम था और जयचन्द्र ने पृथ्विराज को अपमानित करने हेतु उसे स्वयंवर में भी नहीं बुलाया था और उसका पुतला द्वारपाल के रुप में रक्खा था, दूसरी ओर संयोगिता ने भी पृथ्विराज को पत्र लिखकर लेने आने को कहा था जो कार्य पृथ्विराज ने पूरा किया । यहां यदि स्त्री की इच्छा विरुद्ध अपहरण होता तब तो आपत्ति उचित होती पर इसके उलट प्रेमविजय से यह आक्षेप स्वत: ध्वस्त हो जाता है ।
६-मैं आश्चर्यचकित हूं , कि हर एक दमन और धिक्कारों को धर्म हेतु सहकर मेरे देश की माताएँ-बहनें अपने पूर्वजों के आदर्शचरित्र को श्रद्धेय मानकर देवता(दिव्य-द्योतक)- भगवान्(भग नामक गुणों के धारण करने वाले महान मनुष्य) मानकर पूजतीं हैं । सत्य में वे वन्दनीय हैं ,देवी हैं ।
७-मैं आश्चर्य में हूं कि वे सब लोग उन महान पूर्वजों के आधारभूत चरित्रों-ग्रन्थों को न पढ़ने के उपरान्त भी परम्पराप्राप्त कुलश्रुति के अनुसार पूरी श्रद्धा व निष्ठा पूर्वक उन्हैं अपना आदर्श व निष्कपट-निष्कलंक मानते हैं और दूष्टों के द्वारा प्रचारित-प्रसारित भ्रान्तिपूर्ण, आधारहिन, रागद्वेष, अज्ञानमूलक, कोरी भावूकतामूलक बातों को शीघ्र धुत्कार कर मानने से इनकार कर देते हैं क्योंकि अब पता चलने लगा है कि ये सब बातें हमें सनातन से विमुख करके विधर्मी बनाने हेतु गढ़ी गईं हैं ।
श्रीमत्सोमवंशचूडामणिसार्वभौमचक्रवर्त्ती सम्राट् श्रीमद्युधिष्ठिर सम्वत्सर ५१५८ , _—"जाम आर्य्यवीर"_ ,५१२० कलिगते,वैदिक सहस्यमास गते २१ ,मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा, बृहस्पतिवासरे
घटिका-१२,पल-४६
💥ओ३म्💥
🌼शम्🌼
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