Skip to main content

Posts

Showing posts from April, 2020

हमारे सनातन संस्कृति परम्परा के गुरुकुल में क्या क्या पढाई होती थी?

आखिर इस स्वतंत्र भारत में गुरुकुलों की स्थापना क्यों नहीं हुई? बाबाओं ने आश्रम बना दिये, मठ बना दिये, चंदे के बलपर बड़े बड़े प्रकल्प चलने लगे, लेकिन गुरुकुलों से दूरी क्यों बनी हुई है? इंग्लैंड में पहला स्कूल 1811 में खुला उस समय भारत में 7,32,000 गुरुकुल थे, आइए जानते हैं हमारे गुरुकुल कैसे बन्द हुए। हमारे सनातन संस्कृति परम्परा के गुरुकुल में क्या क्या पढाई होती थी ? 01 अग्नि विद्या (Metallurgy)  02 वायु विद्या (Flight)  03 जल विद्या (Navigation)  04 अंतरिक्ष विद्या (Space Science)  05 पृथ्वी विद्या (Environment)  06 सूर्य विद्या (Solar Study)  07 चन्द्र व लोक विद्या (Lunar Study)  08 मेघ विद्या (Weather Forecast)  09 पदार्थ विद्युत विद्या (Battery)  10 सौर ऊर्जा विद्या (Solar Energy)  11 दिन रात्रि विद्या  12 सृष्टि विद्या (Space Research)  13 खगोल विद्या (Astronomy)  14 भूगोल विद्या (Geography)  15 काल विद्या (Time)  16 भूगर्भ विद्या (Geology Mining)  17 रत्न व धातु विद्या (Gems & Metals)  18 आकर्षण विद्या (Gravity)  19 प्रकाश विद्या (Solar Energy)  20 तार विद्या (Communication) 

मनुष्यमात्र में समानता - वेदों का आदेश - वैदिक सुविचार

आर्यावर्त की यह प्रणालिका थी कि सम्राट् भी सामान्य मछुआरे पर अकारण बल प्रयोग नहीं कर सकता था । जन्मना वर्णव्यवस्था का रुढ़ उदय आर्यावर्त के सांस्कृतिक पतन का कारण बना । वर्णचयन पद्धति का नाश होने से वर्णव्यवस्था का स्वरुप बदल गया । महाभारत से १००० वर्ष पूर्व तक यह व्यवस्था डगमगाने लगी, तब से निरर्थक जातियों ने जन्म लेना आरम्भ कर दिया । उससे पूर्व लोह,सूत्र,कुम्भ,सूची,सूवर्णकारादि भृत्यादि वर्ग तो थे ही  । किन्तु उत्कृष्टोर्निकृष्ट, अस्पृश्यता, वर्णकलह नहीं था । आर्यों में समानता थी । यही वेद का आदेश था । आर्य कोई वंश,नस्ल वाचक शब्द ही नहीं । श्रेष्ठ मनुष्यों को आर्य कहते हैं । युरोपियनों से पूर्व किसी ने आर्य नस्ल की कल्पना तक नहीं की थी । शाक्यमुनि बुद्ध ने भी आर्य(श्रेष्ठ) होने का उपदेश दिया । भगवत् बुद्ध की मूर्तियों पर तिलक,यज्ञोपवीत,उपवस्त्र,मेखला,जटा, कमण्डल ये सब आर्य संन्यासियों के ही चिह्न हैं । वो लोग धूर्त हैं जो आर्य—द्रविड़ वा आर्य—मूलनिवासी नामक बकवास बाते करते हैं । बुद्ध कहते हैं "एष धम्म सनन्तनो" ये सनातन धर्म है । सनातन में उँ

अथर्ववेदाचार्य कल्किपात्र ऋषि मातंग देव - धणी मातंग देव का इतिहास

🌞 "अथर्ववेदाचार्य कल्किपात्र ऋषि मातंगदेव" 🚩 ये गाथा है उस ऋषि की ,उस आचार्य की ,उस गुरु की ,उस योगेश्वर की जिन्होंने सिंधु,कच्छ,सुराष्ट्र की भूमि को अपने पवित्र चरण कमलों से धन्य किया ,जिन्होंने भारतवर्ष के इन जनपदों में विदेशी म्लेच्छ आक्रान्ताओं के सामने प्रजा और राजाओं को लड़ने का आह्वान किया । सिंधुदेश,कच्छ,सुराष्ट्र के मेघवालों में मातंगदेव को महान कार्यों के कारण दशम अवतार माना गया । अथर्ववेदाचार्य कल्किपात्र ऋषि मातंग देव - धणी मातंग देव का इतिहास   संवत अठउ वरस नवमुं जसदे जायो बार । चयें जुगें जि वाचा परे, आयो कर दशमुं अवतार ।। माघमास करसन पख तथ त्रीज थावरुवार नखत्र मघा अम्रत चोघडियो गोतम रख जो दोयत्रो रख मात्रे जो विया सोज सामी संचरेओ से आय त्रीभोणे जो रा । अर्थात् मातंग देव का जन्म मात्रा ऋषि व जसदे देवी के घर विक्रम संवत् ८०९ महा मास कृष्ण पक्ष ३ तृतीया व शनिवार के दिन मघा नक्षत्र अमृत योग में हुआ था । वे गोतम ऋषि के दोहित्र थे । उन्होंने सिंध में म्लेच्छों के प्रभाव को रोकने के लिए सिंध,कच्छ,सुराष्ट्र के राजकुलों को एकजुट किया एवं मेघवालों में पुन

शूद्र किसे कहते हैं? क्या शूद्र हीन है? हिन्दू धर्म में शूद्र का स्थान

बहुतसे लोगों को भ्रान्ति होती है कि महर्षि मनु की प्राचीन वर्णव्यवस्था में भी यह शूद्र शब्द हीनार्थ में प्रयुक्त होता था, जबकि ऐसा नहीं था। इस तथ्य का निर्णय ‘शूद्र’ शब्द की व्याकरणिक रचना से हो जाता है। व्याकरणिक रचना के अनुसार शूद्र शब्द का अधोलिखित अर्थ होगा- ‘शु’ अव्ययपूर्वक ‘द्रु-गतौ’ धातु से ‘डः’ प्रत्यय के योग से "शूद्र" पद बनता है। इसकी व्युत्पत्ति होगी- ‘शू द्रवतीति शूद्रः’ = "जो स्वामी के कहे अनुसार इधर-उधर आने-जाने का कार्य करता है ।"  अर्थात् जो सेवा और श्रम का कार्य करता है। संस्कृत वाङ्गमय में ‘शूद्र’ के पर्याय रूप में ‘प्रेष्यः’ =इधर-उधर काम के लिए भेजा जाने वाला, (मनु॰२/३२,७/१२५ आदि), ‘परिचारकः’ =सेवा-टहल करने वाला (मनु॰७/२१७), ‘भृत्यः’ =नौकर-चाकर आदि प्रयोग मिलते हैं। आज भी हम ऐसे लोगों को सेवक, सेवादार, आदेशवाहक, अर्दली, श्रमिक, मजदूर आदि कहते हैं, जिनका उपर्युक्त अर्थ ही है। इस धात्वर्थ में कोई हीनता का भाव नहीं है, केवल कर्मबोधक सामान्य शब्द है । शब्दोत्पत्ति के पश्चात् अब बात करते हैं आप के प्रश्न की, आप के प्रथम प्रश्न का भाव है कि चा

वर्ण व्यवस्था जन्मना या कर्मणा? - आर्ष ग्रंथो से प्रमाण

वर्ण व्यवस्था को लेकर हमारे समाज में बहोत सारी भ्रान्तियां है जिसे आज भी बडे बडे विद्वान उसको समझने में असफल रहे हैं। आज भी लोगो को यह प्रश्न रहता ही है कि वर्णव्यवस्था जन्मना है या कर्मणा? हमारे आर्ष प्राचीन धर्म शास्त्र इस विषय में क्या कहते है आइये देखते है। वर्ण व्यवस्था जन्मना या कर्मणा? आर्ष ग्रंथो से प्रमाण - वर्ण व्यवस्था और जातिवाद में भेद आपस्तम्ब धर्मसूत्र १/५/१०-११ का वचन है कि — "धर्मचर्यया जघन्यो वर्ण: पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ । अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ ।।"   अर्थात् धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम् वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जावे कि जिस के योग्य वह होवे । वैसे अधर्माचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम् वर्णवाला मनुष्य अपने से क्रम में नीचे वर्ण वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जावे जिस के योग्य वह होवे । तथापि मनुस्मृति में कहा है कि — "शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।।"  अर्थात् श्रेष्ठ-अ