आखिर इस स्वतंत्र भारत में गुरुकुलों की स्थापना क्यों नहीं हुई? बाबाओं ने आश्रम बना दिये, मठ बना दिये, चंदे के बलपर बड़े बड़े प्रकल्प चलने लगे, लेकिन गुरुकुलों से दूरी क्यों बनी हुई है? इंग्लैंड में पहला स्कूल 1811 में खुला उस समय भारत में 7,32,000 गुरुकुल थे, आइए जानते हैं हमारे गुरुकुल कैसे बन्द हुए। हमारे सनातन संस्कृति परम्परा के गुरुकुल में क्या क्या पढाई होती थी ? 01 अग्नि विद्या (Metallurgy) 02 वायु विद्या (Flight) 03 जल विद्या (Navigation) 04 अंतरिक्ष विद्या (Space Science) 05 पृथ्वी विद्या (Environment) 06 सूर्य विद्या (Solar Study) 07 चन्द्र व लोक विद्या (Lunar Study) 08 मेघ विद्या (Weather Forecast) 09 पदार्थ विद्युत विद्या (Battery) 10 सौर ऊर्जा विद्या (Solar Energy) 11 दिन रात्रि विद्या 12 सृष्टि विद्या (Space Research) 13 खगोल विद्या (Astronomy) 14 भूगोल विद्या (Geography) 15 काल विद्या (Time) 16 भूगर्भ विद्या (Geology Mining) 17 रत्न व धातु विद्या (Gems & Metals) 18 आकर्...
🌞"अथर्ववेदाचार्य कल्किपात्र ऋषि मातंगदेव"🚩
ये गाथा है उस ऋषि की ,उस आचार्य की ,उस गुरु की ,उस योगेश्वर की जिन्होंने सिंधु,कच्छ,सुराष्ट्र की भूमि को अपने पवित्र चरण कमलों से धन्य किया ,जिन्होंने भारतवर्ष के इन जनपदों में विदेशी म्लेच्छ आक्रान्ताओं के सामने प्रजा और राजाओं को लड़ने का आह्वान किया ।सिंधुदेश,कच्छ,सुराष्ट्र के मेघवालों में मातंगदेव को महान कार्यों के कारण दशम अवतार माना गया ।
अथर्ववेदाचार्य कल्किपात्र ऋषि मातंग देव - धणी मातंग देव का इतिहास

संवत अठउ वरस नवमुं जसदे जायो बार । चयें जुगें जि वाचा परे, आयो कर दशमुं अवतार ।। माघमास करसन पख तथ त्रीज थावरुवार नखत्र मघा अम्रत चोघडियो गोतम रख जो दोयत्रो रख मात्रे जो विया सोज सामी संचरेओ से आय त्रीभोणे जो रा ।
अर्थात् मातंग देव का जन्म मात्रा ऋषि व जसदे देवी के घर विक्रम संवत् ८०९ महा मास कृष्ण पक्ष ३ तृतीया व शनिवार के दिन मघा नक्षत्र अमृत योग में हुआ था । वे गोतम ऋषि के दोहित्र थे ।
उन्होंने सिंध में म्लेच्छों के प्रभाव को रोकने के लिए सिंध,कच्छ,सुराष्ट्र के राजकुलों को एकजुट किया एवं मेघवालों में पुन: धर्म आचरण करने का प्रचार किया व समाज में उन्हैं भक्तकोटि में लाने का काम किया तथा व्रतमय जीवन जीने पर बल दिया । उन्होंने मेघवालों को रखेसर कहा व वेदादि विविध शास्त्र वचनों का स्थानीय भाषा में प्रवचन किया ।
घर रखां के जन्म धराई, जाग जाग अब मेघ सपुता । असंख जुग परेल बीता, उ शंकर तो जात को मेघरख ।
अर्थात् हे मेघ सपुतों !
ऋषिवंशियों के घर तुम्हारा जन्म हुआ है अब जागृत होओ , असंख्य युग जिस शंकर को हुए बीत गये उसी के वंशज मेघ ऋषि की जन्म परम्परा से हो तुम ।
आगे रखेसर तप ज सिधा । जेंके पंज थोक देव नाराण दीधा । (मातंगस्मृति,पृष्ठ-३३)
अर्थात् पहले के ऋषियों ने तप की साधना कर ईश्वर की उपासना की तब नारायण ने मनुष्य को पाँच प्रकार के सुख दिए । १ मनुष्य जन्म ,२ वेदविद्या सद्चरित्र ३ उत्तम आरोग्य ४ गुणवान पत्नि ५ गुणवान संतान
दीनजनोद्धारक मातंग देव कहते हैं कि "त्रिकम तुं गुर, बळ जा गजण, वेद कंथे भ्रांत भांगई । मातंग भांखे गत के दांखे ब्ये भुले जीवे पडत्र न प्रायो ।"
हे त्रिलोक के नाथ त्रिविक्रम (भगवान् विष्णु) ! बली जैसे का उद्धार करने वाले (वामन) आप के पवित्र वेद कथन से हमारी भ्रांतियाँ भंग हो चुकी हैं । मातंग देव विचारते हैं और समाज को बताते हैं कि सत्य से भटक कर के असत्य को ग्रहण करने वाले भुले हुए जीव कभी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते ।
मातंगदेव को भौतिक, शारीरिक शक्तियों के बदले मन की शक्ति पर बहुत विश्वास था । वे पशु,पक्षी सब के हितैषी थे । वे कहते थे कि कोई भी व्यक्ति स्वयं के गुणों का विकास करके देव कहलाता है ।
एक सूत्र में वे कहते हैं कि "त्रे पोर नंध्रा गारो, चोथे पोरे जागी जागो ।" अर्थात् रात्री के चार प्रहर में से ३ प्रहर सुखपूर्व निंद्राधीन रहो पर चतुर्थ प्रहर में उष: काल आने के समय उठ जाओ , और उष:पान करो ,ईश्वर का स्मरण करो ।
मातंगदेव कहते हैं कि "आचारहिन मनुष्य को परमात्मा की वेद विद्या की सफलता प्राप्त नहीं होती , वे चाहे जितना वेद पढ़े फिर भी आचारहिन मनुष्य पवित्र नहीं होता ।"
(मातंगस्मृति,पृष्ठ-३७)
मातंगदेव अपनी वाणी में कहते हैं कि "नमणां खमणां बोतगुणां ,मुख में मीठी वाणी । मनखे मिंजा देव सधा, कोय नईं देवें जि खाणी ।"
अर्थात् नम्र,क्षमावान,धैर्यवान,सद्गुणी और सच्ची प्रिय वाणी बोलने वाले मनुष्यों में देव कहलाते हैं , देवों की कोई अलग खान नहीं ,मनुष्यों में देव संज्ञा सिद्धि होती है ।
धरम करम गनी सतगुर हलेओ, जाते नइणे डठो । त्रेकुडी तेडे हर मातंग ,हव जाई मेघवारें जे घरें वठो । मातंग आयो मेघवारें जे घरे , इ करकल गर पवित्र थेओ ।।
न केवल मेघवाल अपितु वे तो कहते हैं —
"बांभण छत्री वसन वाणिया । सएज मे करकी पात्र चे मुंजी गत ।।" (मातंगस्मृति,पृष्ठ-४४) अर्थात् कल्किपात्र धणी मातंगदेव कहते हैं कि— ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैष्णव-वणिक सर्व में मेरी गत है ।
मातंगदेव ने तत्कालीन मेघवाल समाज को धर्म के एकसूत्र में पिरोने के लिए धार्मिक क्रिया कर्मों वाले "बारमति पंथ/महेशपंथ" की स्थापना की । उन्होंने सिंध के शेणी में कर्केश्वर महादेव लिंग की स्थापना की ।
पबे वडो मेर ,मंदरें वडो कारींगर, वसीयरें वडो वासंग ,सकळ वडो मान सरोवर । नदींएं वडी गंग ,सतियें वडी सीता , पखण जात में गोयड । अढार भार वनस्पत्री जे जो गुर भणीजे पिपर । त्रे भोणें में तिरथ वासु हले तेमें उत्तम तिरथ भणीजे बारमति ।
अर्थात् पर्वतों में सबसे बड़ा मेरु , मंदिरों में कालिंगर का मंदिर, विषैलों में वासुकी नाग, सतियों में सीता जी ,नदिओं में गंगा और सरोवरों में मान सरोवर सबसे महान है । तथा पक्षिओं में गरुड़ और वनस्पती में पिप्पल का वृक्ष महान है इसी प्रकार जगत के विद्यमान समस्त तीर्थों में उत्तम् तीर्थरुप बारमति है (मातंगस्मृति,पृष्ठ-५२)
करता,त्रेता अनीए दुवापर ,रांके जे घरे रोष हुंती ,रात रढियारी थिई रुडारी ,जुग चोथे करकार। मेघवारें जे घरे धणी मातंगदेव आयो धरम तणुं थयो प्रगास । वेद अथरमण पंथ बारमति करकीपात्र मातंगधणी ,आयो जुग चोथे अवतार ।।
अर्थात् कृत,त्रेता,द्वापर बीतने पर रंक जनों में जिनके प्रति सब को रोष भाव था ऐसे रखेसरों के घर अब उज्जवल कान्तिमय आनन्दमय रात्रियाँ होने लगीं, इस चतुर्थ युग में मेघवालों के घर धणी मातंगदेव आये तब धर्म का प्रकाश हुआ ।
वेद अथर्वण(अथर्ववेद) , पंथ बारमति और स्वयं कल्किपात्र (अर्थात् कलियुग के महानविभुति )इस चतुर्थ युग में अवतरित हुए ।
मातंगदेव को मिश्र से आकर आशपाल पण्डित ने शुभ मुहूर्त देखकर वेदमन्त्रों का उच्चारण कर जल से मातंगदेव का अभिषेक किया और षोडशकलायुक्त वंगीयादेव अर्थात् कर्ममुद्रिका भेंट की । परम्परानुसार कन्याओ ने उनका स्वागत् किया । फिर सतगुरु आशपाल पण्डित ने कर्म बारमति नाम की विधि कराई जिस में प्रथम लोढ़ा किया अर्थात् धर्मकार्य निमित्त आसन बिछाया । तत्पश्चात् उस मण्डप में "गुअरी" अर्थात् गौ के गोबर से गोलाकार लीपी हुई भूमि तैयार करवाई , और आसन पश्चिम की और मूँह रहे इस प्रकार रक्खा , फिर बारमति पंथ का पाट चित्रित किया और तब मातंगदेव आसन पर आए और अपने दक्षिण भाग में धर्म दीपक तथा वाम भाग में ऋषि परम्परा की ज्योति प्रज्वलित की तब सब ने उसे प्रणाम किया ।
उसके बाद मातंगदेव की वाग्दान विधि पूर्ण की । तब लोगों ने पूछा कि हे देव ! आपने वाग्दान विधि तो की पर विवाह मुहूर्त क्या रक्खें? तब आशपाल पण्डित ने कहा —
मास मास नमकारेओ धन श्रावण मास । जिण गवरी मैसर पेणेआ ,रख प्रजापति जि धी ।।
कि हे लोगों ! सभी मास नमस्कार करने योग्य हैं ,सब का अपना अपना महत्व है परंतु इन में श्रावण मास धन्य है , इस मास में भगवान् महेश्वर का ऋषि प्रजापति की पुत्री से विवाह हुआ था ।
इस प्रकार उपदेश दिया व कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि व सोमवार को मातंगदेव का विवाह संस्कार करवाया , तब से भगवान् महेश्वर के पंथ पर चलने वाले मेघवाल श्रावण कृष्ण पक्षीय तृतीया को विवाह संस्कार करने लगे ।
फिर वे सुराष्ट्र के कारुम्भा पर्वत पर तप करने आये
माण सरोवरनुं मात्रादेवी आवई ,कालका रुपे कारुम्भे विच ।
शणगार पेरे थईयुं शंभुडीउं ,आवीउं मातंगदेव के पास । कारुम्भे ते उतरईयुं बात्रसंधे बाण, चोसठ जोगणी चालीउं । खपर खनुं करे हथ, कारी जोगण कोठा पाडे बारे तंबुने मेलाण ।।
मातंगदेव सिद्धपुरुष थे इस लिए , मिथ्याभिमानी राजाओं को भी दैवी शक्तिओं से वश में कर लेते थे ऐसा प्राचीन सूत्रो में कहा है । उन्होंने उस समय के राजाओं को उपदेश देकर सिंध,कच्छ,सुराष्ट्र,गुजरात,मारवाड़ के राजकुलों में एकजुटता लाई और विदेशियों के विरुद्ध लड़ने को उद्यत रहने का मार्गप्रशस्त किया । कच्छ के पुराने इतिहास पुस्तकों में वर्णन है कि उनके पिता ने भी सिंधुपति लाखा घुरारा को गजनी की सेना के विरुद्ध विजय दिलाई थी ।
कारुम्भा पर्वत पर तपस्या पूरी करके वे देवाधिदेव भगवान् महेश्वर सोमनाथ महादेव के दर्शन हेतु आये जिस का उनकी वाणी में उल्लेख है कि —
समधर जे कंठे सोमनाथ लंग भणजे, लुधर मादेव तो जागाय । सोस करांये सोस केणी से पुरो ,भर भाधर जे कंठे आय ।। पार करो लुधर प्रथमी जो प्रागड़ो ,परव पुरख सार । सुणधले पडधले जा पातंग नासे , हर मादेव लुधर गनधे तोजो नाम ।।
अर्थात् समुद्र के किनारे पर सोमनाथ लिंग (ज्योतिर्लिंग) कहलाता है, रुद्र ,महादेव के गुण गाये जाते हैं । जिसे आशा होती है उसकी आशा वह पूर्ण करते हैं, जो भरे समुद्र के किनारे पर बैठे हैं । हे रुद्र (लुधर) ! पृथ्वी का उद्धार करो , आप ही पूर्व पुरुष हैं ,आप ही अन्तिम सार हैं । , हे हर ! हे महादेव ! हे रुद्र ! आप का नाम लेने वाले के , सुनने वाले के ,पढ़ने वाले के पाप-पातक नष्ट होते हैं । फिर वहां के विस्तार में दरिद्र जनों से सम्पर्क किया उन्हैं समाज,धर्म,नीति आदि का बोध दिया और गिरनार पर्वत पर आये । गिरनार सिद्धों की भूमि है वहां उस पवित्र तीर्थ की कंदराओं में ध्यान करके कुछ दिन बिताकर तीर्थ पूर्ण किया ।
मथे चडी गरनार ,मातंग बारे खंढे जि सोजना कई । बारे खंढे में पेआ ते ओआ , मातंगदेव सोरे रतीये थेओ सरुप । छत्रीशंख वगा पुळे पुळ साद पेआ , मातंगदेव चतोणी कई त बारे खंढे जि खबर पई ।।
अर्थात् गिरनार पर चढ़ के मातंगदेव ने ध्यान द्वारा १२ खण्डों की विचारणा की, तब वे १६ कलाओं से युक्त हुए तब छत्तीस प्रकार के प्राकृतिक राग सुनाई पड़े, उनके स्वर सुनाई पड़ने पर मातंगदेव जागृत हुए तब स्वयं को १२ खण्डों पर भविष्य में क्या क्या होने वाला है उसका ज्ञान हो गया ।
फिर वे वहां से वे वापस प्रभास धर्म क्षेत्र की ओर बढ़े वहां सोमनाथ के दर्शन हेतु आये सिंधुपति जाम लाखाजी से भेंट हुई । लाखाजी ने उन्हैं सिंधुदेश पधारने का आमन्त्रण दिया तब उन्होंने सुराष्ट्र व कच्छ की यात्रा पूर्ण करके वहां आने का वचन दिया ।
फिर वे अपने शिष्यमण्डल सहित रण मार्ग से कच्छ में पद्धर ग्राम आये वहां रहकर चन्द्रुवा पर्वत पर तप करने गये , आसपास के मेघवालों को पुर नदी के पास चन्द्रुवा आने को कहा , वे वहां आने वालों को बुन ने (वणकर) का काम, कृषि के काम , ओज़ार बनाने के लिए लोहकार,सूत्रधार आदि काम सीखाकर आजीविका के लिए मार्गदर्शन व बिमारों को औषधियाँ देकर ,उनका उपचार,सेवा-सुश्रुषा करके वैद्यक कर्मों की शिक्षा देने लगे । उन्होंने वहां आने वाले सभी को जीवन सुधारक बोध दिए ,
समय मिलने पर कभी कभी शास्त्र प्रवचन व अक्षर ज्ञान से लोगों को सीखाने लगते और बादमें तप करते थे । यहां उन्होंने हद्रति बाण,हद्रति चक्र, वेद साधना आदि की । कुछ समय बाद सिंधुनरेश जाम लाखाजी के पुत्र ओठोजी व जियोजी कच्छ जाकर मातंगदेव को सिंध में ले आये , वहां उन्होंने सिंध में पुन: धर्मप्रचार आरम्भ किया और शेणी के पास कर्केश्वर लिंग की पूजा की और यज्ञ किया । समा के साथ साथ सुमरा राजपूतों ने भी मातंगदेव को अपना गुरु माना और सुमराओं के राजा वेंभरजी विघोकोट से कर्केश्वर महादेव पर बैठे मातंगदेव के दर्शन करने आये और उपदेश ग्रहण किया ।
मातंग देव अपने नोणुं नामक सूत्रों में उपदेश करते थे कि "हर नमो ....देव हर नमो ...आद पुरस परमेश्वर"
कि हर को नमन करो जो आद्य पुरुष परमेश्वर है ।
उनकी वाणी विशाल सागर जैसी है जितनी कहें उतनी कम । वेदमार्ग का वे बार बार उपदेश करते थे, वे स्वयं भी अथर्ववेद की परम्परा के अध्येता व आचार्य थे ।
धरम जा धडा बधो अज अथरमण वेद ।
कि धर्म के धड़े बांधो यही अथर्ववेद कहता है ।
धरम बीज गत हिंए म हारी जा, वावेओ गुरु जे खेत्र
कि — हे समाज ! धर्म के बीज को हृदय से मत हारना , जिसे गुरु ने तुम्हारे खेत में बोया है ।
वे कहते हैं कि "भरमा वसन हर भांखेओ धरम करम वज नरवाण" ब्रह्मा,विष्णु व हर(महेश्वर) कहते हैं कि धर्म,कर्म से ही निर्वाण (मोक्ष,सद्गति,मुक्ति) प्राप्त होता है ।
पूज्य श्री मातंगदेव के कई प्रसंग हैं पर मैं यहां एक भी पूरा नहीं लिख रहा, यदि लिखता तो वह प्रसंग ही एक बृहद् प्रकरण बन जाता । सिंधुदेश में पश्चिमी व दक्षिणी भाग में उस समय कुछ कुछ मुसलमान जागीरें थीं जो सन् ७१२ के अरब आक्रमण के बाद बनीं थीं (दृष्टव्य—>सिंध का इतिहास) , ये लोग पुरी सिंध अपने अधिकार में करना चाहते थे, वे सिंधु के क्षत्रिय राजकुलों समा और सुमरा राजपूतों की सत्ता देख नहीं सकते थे , सिंध के पुराने हैदराबाद के किल्ले पर उस समय हैदरखान राज्य कर रहा था, उसी ने हैदराबाद बसाया । उसने राजपूत सत्ता को सिंध से समाप्त करने के लिए प्रयास आरम्भ किये , पर राज्य में मातंगदेव की नीतियों से वह असफल हो रहा था,
उसके गुप्तचरों ने जानकारी दी कि "मातंगदेव अनेक विद्याओं के ज्ञाता हैं, उनके सामने खड़ा रहना साधारण मनुष्य का काम नहीं, भुले भटकें और दु:खी मनुष्यों को आगे बढ़ाने की सेवा का कार्य करते हैं वे दरवेश हैं ।"
हैदरखान ने पूछा " वह अभी कहां रहते हैं? "
गुप्तचरों ने कहा " अभी तो वे नगर समै में रहते हैं पर मुख्य शेणीढंढ पर आए हुए कर्केश्वर स्थान पर रहते हैं ।"
यह जानकर हैदरखान धणी मातंगदेव को मिलने का निर्णय करके अपने लोगों को लेकर रवाना हुआ ।
उसके मन में हो रहा था कि "ईस्लाम के प्रचण्ड वेग के आडे आनेवाला यह एक मात्र व्यक्ति कैसा होगा"(मातंगस्मृति,पृृष्ठ-१३५)
अपने लोगों सहीत वह शेणी पर पहूंचा तब
मातंगदेव अपने शिष्यों से ज्ञान चर्चा करते बैठे थे ।
हैदरखान मातंगदेव के पास आया और उन्हैं कहा कि —
"आप दरवेश हो ,दु:खियों के दु:ख दूर करते हो ,इस कारण हम आप को मौका देते हैं कि शीघ्र समा व सुमरों को लेकर सिंध खाली कर भाग जाओ । नहीं तो हैदरखान की शमशीर का सामना करने के लिए तैयार हो जाओ ।" (मातंगस्मृति,पृष्ठ-१३६)
यह सुनकर सिंध के राजकुमार अबड़ाजी ने अति क्रोधित होकर भयंकर आवाज़ में हैदरखान को पड़कारा ,इस उग्र बोलचाल के बाद हैदरखान वहां से वापस भाग गया और हैदराबाद दूर्ग में जाकर सैन्य एकत्र करके २१००० की सेना लेकर सिंध जीतने चल पड़ा , समा राजपूतों ने शेणी ढंढ पर सेना एकत्र कर ली और हैदरखान की सेना को आने दिया । सिंधुपति जाम लाखाजी के पौत्र अबड़ाजी इस सेना के सेनापति थे, युद्ध सात दिन चला , समा सेना पूरे बल से लड़ती रही , आक्रान्ताओं की लाशों के ढेर कर दिये , हैदरखान को इस युद्ध की विनाशकता देखकर चिन्ता में पड़ गया ,उसे लगा मातंगदेव कोई शक्ति का प्रहार करेंगे तो इनको हराना कठिन हो जाएगा , तो उसने अपने गुप्तचर भेजे उन्होंने मातंगदेव की स्थिति की जानकारी लगाई और एक लंगा व एक हजाम को समा छावनी से उठा लिया और उन्हैं हैदरखान के पास ले आये । हैदरखान ने रहस्य पूछा तो उन्होंने कहा कि— "मातंगदेव प्रतिदिन प्रात: काल को पूर्वाभिमुख होकर उगते सूर्य के सामने बैठते हैं वहां उनके दो रक्षक होते हैं ,पर अब अबड़ाजी घायल हो गये हैं और बोयथो मेघवाल एकमात्र खड़ा है । कहते हैं कि मातंगदेव के पास दैवी मुद्रिका है जिसे वो पगड़ी में से निकालकर पूजा करते हैं उससे शक्ति मिलती है ।"
हैदरखान ने उन्हैं कहा कि "तुम उसकी इबादत तोड़ दो ,हम तुम्हैं ईनाम देंगे ।" (मातंगस्मृति,पृष्ठ १३९)
तब उन दोनों ने दूसरे दिन सवेरे अमावस्या को ध्यान में लीन मातंगदेव का ध्यान भंग करवाया, मातंगदेव एक ही अंग वस्त्र पहने हुए बैठे थे । कर्केश्वर लिंग और अलखदेव को स्मरण करते हुए पडछाई को देखा और उपर देख के लंगा व हजाम को कहा कि "हे हतभागियों ! तुम ने ये क्या किया ? तुमने मेरी पुजा भंग क्युं कि?" (मातंगस्मृति,पृष्ठ-१३९)
इतना बोलते ही पीछे छिपे हुए हैदरखान ने घात लगाकर पीठ में खंजर घुसेड़ दिया उस पर ज़हर लगाया हुआ था और भाग गया । (मातंगस्मृति,पृष्ठ-१३९)
लंगा व हजाम भी भागने लगे ,यह सुनकर राजकुमार अबड़ाजी क्रोधित होकर वहां आ पहूंचे और युद्ध करने लगे और वीरगति को पहूंच गए ।
अबड़ाजी की मृत्यु से दु:खित होकर घायल मातंगदेव ने अपने सेवक बोयथाजी मेघवाल को सुमरा क्षत्रियों से सहायता लेने राजधानी ठरई नगर भेजा । "पवनपुत्र भीमवंशी बोयथाजी" (मातंगस्मृति,पृष्ठ-१४१) ने ठरई में मातंगदेव के पुत्र लुणंगदेव को जाकर जानकारी दी, लुणंगदेव ने सुमराओं को समझाकर सैन्य टुकड़ी लेकर निकल पड़े , अक्षय तृतीया के दिन शेणीं में भयंकर युद्ध हुआ , सुमराओं के आने से समा सेना भी जोश में आ गयी और सब लड़ने लगे , हैदरखान की सेना में हाहाकार मच गया ,
"सुमरा सेना मैदान में आने से घायल योद्धा पूर्ण बहार में खिल उठे , इस नई सेना और नये व्युह के साथ लड़ाई देखते मुस्लिम सेना भाग ने लगी , राजपूत केसरीया करके टुट पड़े ।" (मातंगस्मृति,पृष्ठ-१४२)
और अन्त में पूज्य लुणंगदेव ने अपने पिता पर घात करने वाले हैदरखान को गुणज(एक प्रकार का खंजर) से मार दिया । और इस प्रकार आठ दिन चलकर युद्ध का अन्त हुआ ,महापुरुषों के बलिदानों के पश्चात् धर्म की जय हुई और सिंधुदेश आने वाले ४०० वर्ष तक सुरक्षित रह गया । छावनी के पास मातंगदेव ने अन्तिम समय में उपदेश दिया , उनके ज्ञान सूत्रों से हमें पता चलता है कि वे कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीयशाखा के भी अध्येता थे, मातंगदेव सदा "धर्माचार" और "कर्म के उजार" का प्रवचन करते थे ।
वे अथर्ववेद को याद करके कहते हैं कि—
वगत वारण मुर गुर मातंग कईये, आद अथर्ववेद सचो । सुणधले पडधले जा पातंग परनासे गत अन रंग मे रची रचो ।।
अर्थात् "जिस अनादि अथर्व वेद का लोक भाषा में मूल विगत से वर्णन करके गुरु मातंगदेव समझाते हैं वह वेद विद्या ही सच्चा धन है ,वेद सुनने से और पढ़ने से मनुष्य पाप दोष रहीत हो जाता है, इस लिए गत (समाज) को कहते हैं कि ऐसे वेद ज्ञान के रंग में रचो जिससे जीवन उन्नत होगा ।"
संवत् ९५९ वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीया को शेणीढंढ पर कर्केश्वर महादेव के पास वेदादि शास्त्रज्ञ दिर्घजीवी मनिषी पूज्य धणी मातंगदेव ने नश्वर देह छोड़ा ।
—स्रोत—> सिंध-कच्छ के विविध इतिहास ग्रन्थ तथा
"मातंगस्मृति"
लेखक- श्री मातंग वेरशी रामजी लालण (जरुवाला)
:-प्रकाशक-> "महेशपंथी साहित्य प्रकाशन"
श्री रामजीभाई काराभाई मांगलिया (लाखोंद वाला)
,गायत्री पिन्टींग प्रेस, गणेशनगर—गांधीधाम
फोन:-(०२८३६)२५२६६१
सर्व हक्क स्वाधिन
:-आवृत्ति-प्रथम ,४/२/२००३ से साभार 👏
प्रस्तोता:- " जाम आर्यवीर "
श्रीमद् सोमवंश चुडामणि सार्वभौमचक्रवर्ति सम्राट् युधिष्ठिर सम्वत्सर ५१५८,कलि गते ५१२०,कार्तिकादि विक्रम संवत् २०७६ अमान्त वैशाख मास शुक्लपक्ष अक्षय ' तृतीया ,रविवासरे
नमो हर
जय महेश्वर देव
जय लुणंग देव
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